‘पठान जाति’ की जड़े कहाँ से हैं-जानिये पूरा इतिहास

पश्तून, पख़्तून ,पश्ताना या पठान दक्षिण एशिया में बसने वाली एक लोक-जाति है, पठान जाति की जड़े कहाँ थी इस बात का इतिहासकारों को ज्ञान नहीं लेकिन संस्कृत और यूनानी स्रोतों के अनुसार उनके वर्तमान इलाक़ों में कभी पक्ता नामक जाति रहा करती थी जो संभवतः पठानों के पूर्वज रहें हों।
पश्तून क़बीलों और ख़ानदानों का पता लगाने की ऐथनोलॉग विधि सूची {Ethnologue विश्व की भाषाओँ की एक सूची है जिसका प्रयोग भाषाविज्ञान में अक्सर किया जाता है। इसमें हर भाषा और उपभाषा को अलग तीन अंग्रेज़ी अक्षरों के साथ नामांकित किया गया है। इस नामांकन को “सिल कोड” (SIL code) कहा जाता है। उदाहरण के लिए मानक हिंदी का सिल कोड ‘hin’, ब्रज भाषा का ‘bra’, बुंदेली का ‘bns’ और कश्मीरी का ‘kas’ है। हर भाषा और उपभाषा का भाषा-परिवार के अनुसार वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया है और उसके मातृभाषियों के वासक्षेत्र और संख्या का अनुमान दिया गया है। इस सूची का 16 वाँ संस्करण सन् 2009 में छपा और उसमें 7,358 भाषाएँ दर्ज थीं।} द्वारा कोशिश की गई है और अनुमान लगाया जाता है कि विश्व में लगभग 350 से 400 पठान क़बीले और उपक़बीले हैं।
पश्तून इतिहास 5 हज़ार साल से भी पुराना है और यह अलिखित तरिके से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है। पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यह जाती ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है, इस कथा के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी इस्राएल के दस कबीलों को देश निकाला दे दिया गया था और यही कबीले पख़्तून हैं, ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें श्लोक में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पक्त्याकय’ नाम से मिलता है इसी तरह तीसरे खंड का 91 वाँ श्लोक आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से करता है.. (??)
पख़्तूनों के बनी इस्राएल (अर्थ – इस्रायल की संतान) होने की बात सत्रहवीं सदी ईसवी में जहांगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है। अंग्रेज़ लेखक और यात्री अलेक्ज़ेंडर बर्न्स ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् 1835 में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है हालांकि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं। अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः 1837 में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है इसमें संदेह नहीं लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करेंगे। विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी 1811 व 1825 के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है। जे बी फ्रेज़र ने अपनी 1834 की ‘फ़ारस और अफ़ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त’ नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था।
जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने 1858 में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बेनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हीब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये। इन्हें उसके ख़ेमे मे मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया।
“पठानो क़ी एक़ नस्ल मनिहार क़े नाम से जानी जाती है जो चूड़ियॉ व बिसातख़ाने क़ा सामान बेचने अफग़ानिस्तान से भारत जाया क़रते थे धीरे-धीरे ये वही बस ग़ये मुग़ल क़ाल मे ये तोपख़ाने मे भर्ती क़िये ग़ये इनक़ी वीरता से ख़ुश होक़र बादशाहो ने इन्हे जमीदार तालुक़ेदार बनाया ये अपने नाम क़े आग़े मिर्जा बेग़ आदि लग़ाते है।
पश्तून लोक-मान्यताओं के अनुसार सारे पश्तून चार गुटों में विभाजित हैं:
1. सरबानी या सर्बानी ,
2. बैतानी ,
3. ग़रग़श्ती या ग़र्ग़श्त और
4. करलानी या ख़रलानी / ख़र्ल़ानी ,
मौखिक परंपरा के अनुसार यह क़ैस अब्दुल रशीद जो समस्त पख्तूनो के मूल पिता माने जाते हैं उनके चार बेटों के नाम से यह चार क़बीले बने थे। इन गुटों में बहुत से क़बीले और उपक़बीले आते हैं और माना जाता है कि कुल मिलाकर पश्तूनों के 350 से 400 क़बीले एवं उपकबीले हैं।
1.) पठान या ख़ान के सर्बानी क़बीले :-
1. Sheranai शेर्नाई
2. Jalwaanai जलानाई
3. Barais (Barech) बरेछ
4. Baayer बायार
5. Oormar ऊरमर
6. Tareen (Tarin) तारीन (उप क़बीले तोर तारीन, स्पीन, राईज़ानी व खेत्रानी यह क़बीले ब्रह्यी व बलूची ज़बान बोलते हैं पश्तु नहीं) [Subtribes: Tor Tarin, Spin Tarin] { Raisani & Khetran are also Tarin. Currently these Tribes are speaking Brahvi & Balochi respectively }
7. Gharshin ग़रशीन
8. Lawaanai लावानाई
9. Popalzai पोपलज़ाई
10. Baamizai बामीज़ाई
11. Sadozai सदोज़ाई
12. Alikozai आलीकोज़ाई
13. Barakzai बरकज़ाई
14. Mohammad zai (Zeerak) ज़ीराकी
15. Achakzai (Assakzai) अज़्ज़ाक्ज़ाई
16. Noorzai नूरज़ाई
17. Alizai अलीज़ाई
18. Saakzai साकज़ाई
19. Maako माकू
20. Khoogyanai खूग्ज़ाई
21. Yousufzai युसुफ़ज़ाई
22. Atmaanzai (Utmanzai) आत्मानज़ाई
23. Raanizai रानीज़ाई
24. Mandan मून्दन
25. Tarklaanai तर्क़्लानाई
26. Khalil ख़लील
27. Babar बाबर
28. Daudzai दाऊदज़ाई
29. Zamaryanai ज़मर्यन्ज़ाई
30. Zeranai ज़ेरानाई
31. Mohmand मोहम्मद
32. Kheshgai (Khaishagi) ख़ैशगी
33. Mohammad Zai (Zamand) मोहम्मदेज़ई / जमांद़
34. Kaasi कासी
35. Shinwarai शिन्वाराई
36. Gagyanai ग़यनाई
37. Salarzaiसलार्ज़ाई
38. Malgoorai मल्गुराई
2.) पठान या ख़ान के ग़रग़श्त / ग़र्ग़श्त क़बीले :-
1- तूज़ीर Tozeer
2- शाबाई Shabai
3- Babai बाबाई
4- Mandokhail मन्दूखैल
5- Kakar काकर
6- Naghar नग़र
7- Panee (Panri) पानी (खज्जाक लूनी मर्ग़ज़ानी देहपाल बरोज़ाई मज़ारी आदि।Khajjak, Luni, Marghazani, Dehpal, Barozai, Mzari etc.)
8- Dawi दावी
9- Hamar हमार
10- Doomar (Dumarr) धूमर
11- Khondai खुन्दाई
12- Gadoon (Jadun) गरुम / जादोन
13- Masakhel (Musakhail) मसखैल
14- Sapai or Safai (Safi) सपाई
15- Mashwanai मशवानाई
16- Zmarai (Mzarai) ज़ामाराई
17- Shalman शलमोन
18- Eisoot (Isot) ईसोत
3.) पठान या ख़ान के ख़र्लानी / ख़रलानी क़बीले :- हिंदी – हिंदुत्व की झलकें हर कबीलाई नामों में मिलेंगी बनिस्पत अरबी – तुर्क भाषा आदि के..
1. Mangal मंगल
2. Kakai काकई
3. Torai (Turi) तोराई
4. Hanee हनी
5. Wardak (Verdag) वर्दक
6. Aurakzai (Orakzai) औराक्ज़ाई
7. Apridee or Afridi आ़फ़रीदी
8. Khattak खत्ताक
9. Sheetak शीताक
10. Bolaaq बलाक़
11. Zadran (Jadran) ज़रदान
12. Wazir वज़ीर
13. Masid (Mahsood) मसीद
14. Daur (Dawar) दावर
15. Sataryanai सत्यानाई
16. Gaaraiग राई
17. Bangash बंगश
18. Banosee (Banuchi) बनुची
19. Zazai (Jaji) ज़ज़ाई
20. Gorbuz ग़र्बूज़
21. Tanai (Tani) तनाई
22. Khostwaa ख़ोस्तवा
23. Atmaankhel (Utmankhail) उत्मानखैल
24. Samkanai (Chamkani) समकानाई
25. Muqbal मुकबल
26. Manihaar मनिहार
4.) पठान या ख़ान के बैतानी क़बीले :-
1. Sahaak सहाक
2. Tarakai तराकज़ाई
3. Tookhi तूख़ी
4. Andar अन्धर
5. SuleimanKhail (Slaimaankhel) सुलैमानखैल
6. Hotak होतक
7. Akakhail अकखैल
8. Nasar नासर
9. Kharotai ख़रोताई
10. Bakhtiar बख़्तियार
11. Marwat मार्वात
12. Ahmadzai अहमदज़ाई
13. Tarai तराई
14. Dotanai दोतानी (Dotani)
15. Taran तारन
16. Lodhi लोधी (सुल्तान इब्राहिम लोधी वाला)
17. Niazai नाईज़ाई
18. Soor सूर
19. Sarwanai सर्वानाई
20. Gandapur गन्धापुरी
21. Daulat Khail दौलत खेल
22. Kundi Ali Khail कुन्धी अली खैल
23. Dasoo Khail दासू खैल
24. Jaafar जाफ़र
25. Ostranai (Ustarana) ओस्त्रानाई
26. Loohanai लूहानाई
27. Miankhail मैनखैल
28. Betani (Baitanee) भैतानी
29. Khasoor ख़सूर
पठानों के या यूँ कहें कि पख्तून क़बीले कई स्तरो पर विभाजित रहते हैं, त्ताहर (क़बीला) कई ख़ेल अरज़ोई या ज़ाई से मिल कर बना होता है। ख़ेल कई प्लारीनाओं से मिल कर बना होता है। प्लारीना कई परिवारों से मिल कर बना होता है, जिन्हें कहोल कहा जाता है।
पख्तून क़बीलाई व्यवस्था में काहोल सबसे छोटी इकाई होती है इसमें –
1- ज़मन (बेटे)
2- ईमासी (पोते)
3- ख़्वासी (पर पोते)
4- ख़्वादी (पर-पर पोते) होते हैं।
तीसरी पीढी का जन्म होते ही परिवार को कोहल का दर्जा मिल जाता है।
★ इसी तरह मनिहार (Manihar या Manihaar) अफगानिस्तान, पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी का पठान – पख्तून कबीला है, इस कबीलाई जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी और महिला श्रृंगार का सामान बेचना है, इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा जाता है।
मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है, यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं ये मनिहार लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में प्राय: ‘सिद्दीकी’ ही लगाते हैं ,, इस मनिहारों या चूड़ीहारों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता के लालचवश मुसलमान बने इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों क़े नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे –
भट्टी,
सोलंकी,
चौहान,
बैसवारा, आदि।
दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये मुस्लिम खलीफ़ा अबू बकर के वंशज हैं जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास बस गये…इनमें पाये जाने वाले क़बीले बनू तैय्याम, बनी खोखर, बनी इजराइल इसके साक्ष्य हैं।
इस मुस्लिम कबीलाई जाति के लोग रायबरेली जिले की पसतौर, जिहवा, थुलेण्डी आदि रियासतों के जमींदार भी रहे हैं।
मनिहारों के उपकबीले या उपजातियां –
(1) इसहानी,
(2) कछानी,
(3) लोहानी,
(4) शेख़ावत,
(5) ग़ोरी,
(6) कसाउली,
(7) भनोट,
(8) चौहान,
(9) पाण्ड्या,
(10) मुग़ल,
(11) सैय्यद,
(12) खोखर,
(13) कचेर,
(14) बैसवारा,
(15) राठी और
(16) तोमर आदि!
पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा (Theory of Pashtun descent from Israelites) 19 वीं सदी के बाद से बहुत पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बनी हुई है, पश्तूनों की लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है जिन्हें लगभग 2800 साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था!
जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे मे जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है वह लिखता है कि उनके अफ़गानिस्तान मे होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं वह लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है। [George Moore,The Lost Tribes]इसके अलावा सर जान मेक़मुन, Sir George Macmunn (Afghanistan from Darius to Amanullah, 215), कर्नल जे बी माल्लेसोन (The History of Afghanistan from the Earliest Period to the outbreak of the War of 1878, 39), कर्नल फ़ैलसोन (History of Afghanistan, 49), जार्ज बेल (Tribes of Afghanistan, 15), ई बलफ़ोर (Encyclopedia of India, article on Afghanistan), सर हेनरी यूल Sir Henry Yule (Encyclopædia Britannica, article on Afghanistan), व सर जार्ज रोज़ (Rose, The Afghans, the Ten Tribes and the Kings of the East, 26) भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं हालांकि उनमे से किसी को भी एक दूसरे के लेखों की जानकारी नहीं थी।
मेजर ए व्ही बेलो (Major H. W. Bellew,) कन्दाहार / कंधार / गांधार राजनीतिक अभियान पर गया था, इस अभियान के बारे मे Journal of a Mission to Kandahar, 1857-8. में फिर दोबारा 1879 मे अपनी किताब Afghanistan and Afghans. मे एवं 1880 मे अपने दो लेक्चरों मे जो the United Services Institute at Simla: “A New Afghan Question, or “Are the Afghans Israelites?” विषय पर कहता है एवं The Races of Afghanistan. नामक किताब मे भी यही बात लिखता है फिर सारी बातें An Enquiry into the Ethnography of Afghanistan, जो 1891 में प्रकाशित हुई, यही सब बातें लिखता है।
इस किताब मे वह क़िला यहूदी का वर्णन करता है। (“Fort of the Jews”) (H.W. Bellew, An Enquiry into the Ethnography of Afghanistan, 34), जो कि उनके देश की पूर्वी सीमा का नाम था वह दश्त ए यहूदी का भी वर्णन करता है, Dasht-i-Yahoodi (“Jewish plain”) (ibid., 4), जो मर्दान ज़िले मे एक जगह है वह इस नतीजे पर पहुंचा कि अफ़ग़ानों का याक़ूब, इसाइयाह / इसाक / इसहाक / आईजैक और मूसा एक्षोडस समेत इस्राएली युद्धों, फ़िलिस्तीन विजय, आर्च ओफ़ कोवीनेंट साऊल का राज्याभिषेक आदि आदि के बारे मे बताया जाना व सबूत मिलना जो कि केवल बाईबिल मे ही मिल सकते थे, जबकि वहां पर हमसे पहले कोई ईसाई गया नहीं था, यह स्पष्ट करता है की अफ़ग़ान लोग बाइबिल की पाँच किताबों के ज्ञाता थे।
इसका केवल एक ही सार निकलता है कि वे बनी इस्राएल थे व अपनी परंपराओं के तहत पीढी दर पीढी ज्ञान को बचाए रखा। (Ibid., 191) थोमस लेड्ली ने Calcutta Review, मे एक लेख लिखा जो उसने दो भागो मे प्रकाशित किया जिसमे वह लिखता है कि यूरोपीय लोग उस समय खुद को भ्रम में डाल देते हैं जब वे इस सच्चाई पर बात करते हैं कि अफ़ग़ान लोग खुद को बनी इस्राएल कहते हैं लेकिन साथ ही यहूदी मूल के होने से इंकार करते हैं। उसी के शब्दों में देखें –
“The Europeans always confuse things, when they consider the fact that the Afghans call themselves Bani Israel and yet reject their Jewish descent. Indeed, the Afghans discard the very idea of any descent from the Jews. They, however, yet claim themselves to be of Bani Israel.” [Thomas Ledlie, More Ledlian,Calcutta Review, January, 1898]
लेडली इसे समझाने की कोशिश करते हुए लिखता है कि दाऊद के घर से अलग होने के बाद बनी इस्राएल मे से केवल यहूदा के घराने का नाम यहूदी पड़ा एवं उसके बाद से उनका अपना अन्य बनी इस्राएल से अलग इतिहास हैं उसी के शब्दों मे देखें तो वह इस प्रकार लिखता है–
“Israelites, or the Ten Tribes, to whom the term Israel was applied – after their separation from the House of David, and the tribe of Judah, which tribe retained the name of Judah and had a distinct history ever after. These last alone are called Jews and are distinguished from the Bani Israel as much in the East as in the West.”
[Ibid., 7]
आधुनिक इतिहास व शोध में अन्य अनेक समकालीन इतिहास कारों के साथ डा अल्फ़्रेड एडरशीम लिखता है कि आधूनिक शोध से यह साबित हो गया है कि अफ़ग़ान लोग इस्राएल के खोए हुए घरानों के वंशज ही हैं।
“Modern investigations have pointed the Afghans as descendants from the Lost Tribes.”
[Dr. Alfred Edersheim, The Life and Times of Jesus, the Messiah, 15]
सर थामस होल्डिक अपनी किताब The Gates of India मे कहता है कि एक बहुत महत्वपूर्ण क़ौम है जो खुद को बनी इस्राएल कहती है, यह क़ौम खुद को इस्राएली ख़ैश व हैम के वंशज बताते हैं, इनके रीति रिवाजो व नैतिक नियमो में रहस्यमय तरीके से मूसा की शरीयत की बातें शामिल हैं वे एक त्योहार भी मनाते हैं जो पूरी तरह से मूसा के Passover,… जैसा ही है,, कोई भी इसकी वजह इसके अलावा कुछ नही बता सकता जो यह लोग दावा करते हैं, यह लोग अफ़ग़ानिस्तान के निवासी हैं उसके शब्द इस प्रकार हैं।
“But there is one important people (of whom there is much more to be said) who call themselves Bani Israel, who claim a descent from Cush and Ham, who have adopted a strange mixture of Mosaic Law in Ordinances in their moral code, who (some sections at least) keep a feast which strongly accords with the Passover,… and for whom no one has yet been able to suggest any other origin than the one they claim, and claim with determined force, and these people are the overwhelming inhabitants of Afghanistan.” – Sir Thomas Holditch, The Gates of India, 49.
सन 1957 मे इत्ज़ाक बिन ज़्वी जो इस्राएल का दूसरा राष्ट्रपति था लिखता है कि पश्तो के पूर्वज इस्राएली थे उन्होने अपनी परंपराओ को क़ायम रखा है, इनमें अनेक जातियां हैं जिन्होने इस्लाम अपनाने के साथ साथ अपना पिछला विश्वास त्याग दिया। उदाहरण के लिये अरब मूलतः एक मूर्तिपूजक क़बीला थे, उन्होने मूर्तिपूजा छोड़ दी। ईरानी आग की पूजा करते थे, उन्होने इस्लाम अपनाने के बाद इसे छोड़ दिया। सीरिया के लोगो ने इस्लाम अपनाने के बाद अपना ईसाई मत त्याग दिया। अनेक लोग जिनमे यहूदी व ग़ैर यहूदी दोनो ही हैं, अफ़ग़ानिस्तान गये है, एव उनकी परंपराओं को देखा है।
यह परंपराएं यूरोप के कई एनसाइक्लोपीडियाओ में भी दर्ज हैं यह परंपराए उनके इस्राएली मूल के होने का ठोस सबूत हैं, परंपराए पीढी दर पीढी मौखिक रूप से जाती हैं जो पख्तूनों या पश्तूनों – पठानों के मूल इतिहास का प्रमुखतम बिंदु है – पारिवारिक – कबीलाई इतिहास अलिखित व मौखिक रूप से है वो भी कई स्मृतिचिन्हों के साथ उदाहरणार्थ दी गई पश्तून – पठान लॉकेट – तावीज़ की तस्वीर देखें।
इसी विषय पर यह 03:45 मिनट्स का अंतर्राष्ट्रीय वीडियो जरूर देखें।
https://m.youtube.com/watch?v=HAr8kNV5AlI
एक और अंतर्राष्ट्रीय डॉक्यूमेंटरी का लिंक नीचे है देख कर तसल्ली कर लें –
Pashtuns – Israeli jew origins of Pathans ,Pashtuns are The Lost Tribes of Israel .
दुनिया के लगभग हर देश के इतिहास का बड़ा हिस्सा लिखित रेकार्ड पर नहीं बल्कि इसी प्रकार की मौखिक परंपराओ के मार्फ़त ज़िन्दा रहता है उसी इत्ज़ाक बिन ज़्वी जो इस्राएल का दूसरा राष्ट्रपति था के शब्दो मे देखे तो वे इस प्रकार हैं –
“The Afghan tribes, among whom the Jews have lived for generations, are Moslems who retain to this day their amazing tradition about their descent from the Ten Tribes. It is an ancient tradition, and one not without some historical plausibility. A number of explorers, Jewish and non-Jewish, who visited Afghanistan from time to time, and students of Afghan affairs who probed into literary sources, have referred to this tradition, which was also discussed in several encyclopedias in European languages. The fact that this tradition, and no other, has persisted among these tribes is itself a weighty consideration. Nations normally keep alive memories passed by word of mouth from generation to generation, and much of their history is based not on written records but on verbal tradition. This was particularly so in the case of the nations and the communities of the Levant. The people of the Arabian Peninsula, for example, derived all their knowledge of an original pagan cult, which they abandoned in favor of Islam, from such verbal tradition. So did the people of Iran, formerly worshipers of the religion ofZoroaster; the Turkish andMongol tribes, formerlyBuddhists and Shamanists; and the Syrians who abandoned Christianity in favor of Islam. Therefore, if the Afghan tribes persistently adhere to the tradition that they were once Hebrews and in course of time embraced Islam, and there is not an alternative tradition also existent among them, they are certainly Jewish.”
[The Exiled and the Redeemed]
यहूदी जाति ‘यहूदी’ का मौलिक अर्थ है- येरूसलेम के आसपास के ‘यूदा’ नामक प्रदेशें का निवासी। यह प्रदेश याकूब के पुत्र यूदा – जूडा के वंश को मिला था, बाइबिल में ‘यहूदी’ के निम्नलिखित अर्थ मिलते हैं- याकूब का पुत्र यहूदा, उनका वंश, उनके प्रदेश, कई अन्य व्यक्तियों के नाम।
यूदा प्रदेश (Kingdom of Juda) के निवासी प्राचीन इजरायल के मुख्य ऐतिहासिक प्रतिनिधि बन गए थे, इस कारण समस्त इजरायली जाति के लिये यहूदी शब्द का प्रयोग होने लगा। इस जाति का मूल पुरूष अब्राहम थे, अत: वे ‘इब्रानी’ भी कहलाते हैं। याकूब का दूसरा नाम था इजरायल, इस कारण ‘इब्रानी’ और ‘यहूदी’ के अतिरक्ति उन्हें ‘इजरायली’ भी कहा जाता है।
यहूदी धर्म को मानने वालों को यहूदी कहा जाता है। यहूदियों का निवास स्थान पारंपरिक रूप से पश्चिम एशिया में आज के इसरायल को माना जाता है जिसका जन्म 1947 के बाद हुआ। मध्यकाल में ये यूरोप के कई क्षेत्रों में रहने लगे जहाँ से उन्हें उन्नीसवीं सदी में निर्वासन झेलना पड़ा और धीरे-धीरे विस्थापित होकर वे आज मुख्यतः इसरायल तथा अमेरिका में रहते हैं। इसरायल को छोड़कर सभी देशों में वे एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में रहते हैं आज भी इनका मुख्य काम व्यापार है, यहूदी धर्म को इसाई और इस्लाम धर्म का पूर्ववर्ती कहा जा सकता है इन तीनों धर्मों को संयुक्त रूप से ‘इब्राहिमी धर्म’ भी कहते हैं।
पश्तूनवाली या पख़्तूनवाली दक्षिण एशिया के पश्तून समुदाय (पठान समुदाय) की संस्कृति की अलिखित मर्यादा परम्परा है, इसके कुछ तत्व उत्तर भारतऔर पाकिस्तान की इज़्ज़त – मर्यादा रक्षण नियमावली से मिलते-जुलते हैं , इसे ‘पश्तूनी तरीक़ा’ या ‘पठान तरीक़ा’ भी कहा जा सकता है हालांकि पश्तून लोग वर्तमान काल में मुस्लिम हैं, “लेकिन पश्तूनवाली की जड़े इस्लाम से बहुत पहले शुरू हुई मानी जाती हैं, यानि यह एक इस्लाम-पूर्व परम्परा है।”
पश्तूनों की सोहबत में रहने वाले बहुत से ग़ैर-पश्तून लोग भी अक्सर पश्तूनवाली का पालन करते हैं..!!
पश्तूनवाली मर्यादा के नौ नियम होते हैं:
मेलमस्तिया (अतिथि-सत्कार) – अतिथियों का सत्कार और इज़्ज़त करनी चाहिए। अतिथियों के रंग-रूप, जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति के आधार पर उनसे भेदभाव नहीं करना चाहिए। अतिथि-सत्कार के बदले किसी चीज़ की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।ननवातई (ننواتی, शरण देना) – मुश्किल में आया हुआ कोई भी व्यक्ति अगर आपके पास आकर शरण मांगे, उसे पनाह देना ज़रूरी है, चाहे अपने ही जान और माल क्यों न जाएँ।बदल (बदला) – अगर कोई आपके विरुद्ध नाइन्साफ़ी या आपकी इज़्ज़त के ख़िलाफ़ काम करे तो उस से बदला लेना ज़रूरी है। अगर कोई आप की इज़्ज़त पर कोई तंज़ भी करता है तो उसे मारना ज़रूरी है और, अगर वह नहीं मिलता तो उसके सब से नज़दीकी पुरुष सम्बन्धी को मारना ज़रूरी है।तूरेह (توره‎, वीरता) – हर पश्तून को अपनी ज़मीन-जायदाद, परिवार और स्त्रिओं की रक्षा हर क़ीमत पर करनी चाहिए। किसी के दबाव के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए।सबत (वफ़ादारी) – अपने परिवार, दोस्तों और क़बीले के सदस्यों से हर हाल में वफ़ादारी करनी चाहिए।ईमानदारी – ईमानदारी दिखानी चाहिए। अच्छे विचार, अच्छे शब्द और अच्छे कर्मों का साथ करना चाहिए।इस्तेक़ामत – परमात्मा पर भरोसा रखना चाहिए।ग़ैरत – अपनी इज़्ज़त पर दाग़ नहीं लगने देना चाहिए। इज़्ज़त घर पर शुरू होती है – एक दुसरे से इज़्ज़त का बर्ताव करना चाहिए और अपनी बे-इज़्ज़ती कभी बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए।नामूस (स्त्रियों की इज़्ज़त) – अपने परिवार की स्त्रियों की इज़्ज़त किसी भी क़ीमत पर बरक़रार रखनी चाहिए। अपशब्दों और किसी भी अन्य प्रकार की हानि होने नहीं देनी चाहिए चाहे कुछ भी करना पड़े।
☞ पश्तूनवली / Pashtunwali -पठानों की आचार संहिता :
पश्तूनवली या पख़्तूनवली का मतलब होता है, पख़्तून जीवनशैली। यह एक इस्लाम के आने से पहले की जीवनशैली या मज़हब है।
यह परंपरागत जीवनशैली है यह पख़्तून या पठानों की नैतिकता या आचारसंहिता भी है।
★ “इसके मुख्य सिद्धान्त नौ हैं इनका पालान पख़्तूनों अथवा पठानों द्वारा पिछले 5 हज़ार सालों से किया जा रहा है इनका इसलाम के साथ कोई मतभेद नहीं है, एव यह सभी इसलाम में भी शामिल हैं।”
‘बेशुमार जन्नत की नेमतें पख़्तो के माध्यम से पख़्तूनों पर नाज़िल होती हैं:- ग़नी ख़ान (1977)’
पख़्तूनवली का पालन अफ़ग़ानिस्तान, भारत व पाकिस्तान समेत सारी दुनिया के पठानों द्वारा किया जाता है कुछ ग़ैर पठान लोग भी पठानों के प्रभाव में आकर पख़्तूनवली का पालन करते हैं यह मुख्यतया एक आचार संहिता है जो व्यक्तिगत जीवन के साथ साथ सामाजिक जीवन का भी मार्गदर्शन करती है, पश्तूनवली बहुमत पठानों द्वारा पालन की जाने वाली आचार संहिता है यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि पठान जब तक पख़्तूनवली का पालन करते रहे तब तक उन्होने दुनिया पर राज किया व कभी भी किसी से पराजित नहीं हुए, भारत में जब उन्होने पख़्तूनवली का पालन करना बन्द कर दिया तब वे जाट मराठों, मुग़लो अंग्रेज़ों सभी से पराजित होते गये, ज़लील हुए व मुफ़लिसी ने उन्हें आ घेरा।
इस लेख में पहले ही बताया जा चुका है कि मान्यताएँ हैं कि “पख़्तून बनी इस्राएल से हैं यह ख़ुदा की चुनी हुई क़ौम कहलाती है, पख़्तूनवली के सिद्धान्त मुसा अलैहिस्सलाम की तौरात पर ही आधारित हैं इसमें वह अहद शामिल है जो ख़ुदा ने बनी इस्राएल से बांधा था कि जब बनी इस्राएल अपना वादा पूरा करेंगे तो ख़ुदा भी अपना वादा पूरा करेगा जो उसने बनी इस्राएल से किया था।
जैसा कि क़ुरान में भी आया है कि “ऐ बनी इस्राएल तुम अपना वह वादा पूरा करो जो तुमने मुझ से किया था, ताकि मैं अपना वह वादा पूरा करूं जो मैंने तुम से किया था।”
पख़्तूनों ने अपना पांच हज़ार साल के इतिहास का भी रेकार्ड सुरक्षित रखा हुआ है, पख़्तूनवली आत्म सम्मान, आज़ादी, न्याय, मेहमाननवाज़ी, प्यार, माफ़ कर देना, बदला लेना, सहनशीलता आदि को बढ़ावा देने वाली आचार संहिता है। यह सब कुछ सबके लिये है, जिसमें अजनबी व परदेसी भी शामिल हैं चाहे उनकी जाति, धर्म, विश्वास, राष्ट्रीयता कुछ भी हो। पश्तूनवली का पालन करना वा इसकी हिफ़ाज़त करना हर एक पठान की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी है।
पख़्तूनवली के कुछ मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
1. मेलमेस्तिया Melmastia (मेहमाननवाज़ी)– दया, मेहरबानी व मेहमाननवाज़ी सभी परदेसियों व अजनबियों पर दिखाया जाना। इसमें धर्म, जाति, मूलवंश राष्ट्रीयता आदि के आधार पर कोई भेदभाव ना करना। यह सब बग़ैर किसी इनाम या बदले में कुछ मिलेगा ऐसी उम्मीद के किया जाना चाहिये। पशूनों की मेहमान नवाज़ी दुनिया भर में मशहूर है।
2. नानावाताई Nanawatai (asylum) –अगर कोई अपने दुश्मनों से बचाने के लिये मदद व संरक्षण मांगे तो उन्हें संरक्षण दिया जाना चाहिये। हर क़ीमत पर उन्हें संरक्षण दिया जाता है। उन लोगों को भी जो क़ानून से भाग रहे हों उस समय तक संरक्षण दिया जाना चाहिये जब तक कि वस्तुस्थिति साफ़ नहीं हो जाती। जब पराजित पक्ष विजेता के पास जाता है, तब भी उन्हें संरक्षण दिया जाता है। कई मामलों में आत्म समर्पण करके अपने दुशमन के ही घर में शरण ली जाती है।
3. बदल (इंसाफ़, justice) – ख़ून के बदले ख़ून, आंख के बदले आंख, दांत के बदले दांत्। ऐसा पतीत होता है कि यह माफ़ कर देने, दया करने के सिद्धान्त के विपरीत है। लेकिन ऐसा समझ कम होने के कारण ग़लत फ़हमियां पैदा होती हैं। माफ़ी के लिये ज़रूरी है, कि ग़लती करने वाला माफ़ी मांगे, बगैर मांगे कैसी माफ़ी?
यह सभी प्रकार के गुनाहों व अपराधों पर लागू है, चाहे ग़लत काम कल किया गया था, चाहे एक हज़ार साल पहले किया गया हो अगर ग़लती करने वाला ज़िन्दा ना हो तो उसके नज़दीकी ख़ून के रिश्ते वाले से बदला लिया जाएगा।
4. तूरेह Tureh (बहादुरी, bravery) – एक पठान को अपनी ज़मीन, संपत्ति, परिवार, स्त्रियों आदि की हिफ़ाज़त बहादुरी से लड़ाई लड़ कर ही करनी चाहिये यह पश्तून स्त्री पुरुष दोनों ही की ज़िम्मेदारी है इसके लिये उसने मौत को भी यदि गले लगाने की ज़रूरत पड़े तो मौत को गले लगा लेना चाहिये।
5. सबात Sabat (वफ़ादारी, loyalty) – हर एक को अपने परिवार, दोस्तों, क़बीले, आदि के प्रति वफ़ादार होना चाहिये।,सबात या वफ़ादारी बेहद ज़रूरी है व एक पठान कभी भी बेवफ़ा नहीं हो सकता यही मान्यताएँ रही है।
6. ईमानदारी Imandari (righteousness) –एक पख़्तून ने हमेशा अच्छी बातें सोचना चाहिये, अच्छी बातें बोलना चाहिये, अच्छे काम करना चाहिये। पख़्तून काे सभी चीज़ों का सम्मान करना चाहिये जिसमें लोग, जानवर व पर्यावरण भी शामिल है इनको नष्ट करना पख़्तूनवली के ख़िलाफ़ है, जुर्म है, गुनाह है!
7. इस्तेक़ामत Isteqamat – ख़ुदा पर विश्वास करना पश्तो में जिसे ख़ुदा, अरबी में अल्लाह व हिन्दी में भगवान कहा जाता है इसी को अंग्रेज़ी में ग़ाड कहते हैं। ऐसा विश्वास करना कि ख़ुदा एक है, उसी ने सारी दुनिया की सभी चीज़ें बनाई हैं यह हज़ार साल पुराना पख़्तूनवली का सिद्धान्त इसलाम के तौहीद के समकक्ष है।
8. ग़ैरत Ghayrat (self honour or dignity)-पख़्तून काे हमेशा अपना मानवीय गरिमा बनाये व बचाये रखना चाहिये। पख़्तून समाज में गरिमा बहुत महत्वपूर्ण है। उनको अपनी व अन्य लोगों की भी गरिमा को बनाये व बचाये रखना चाहिये। उनकाे ख़ुद अपना भी सम्मान करना चाहिये व दूसरों का भी सम्मान करना चाहिये!
9. नमूस (औरतों का सम्मान) Namus (Honor of women) – एक पठान को पठान स्त्रियों व लड़कियों के सम्मान की रक्षा हर क़ीमत पर करनी चाहिये।
★★ अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त:-आज़ादी:- शारीरिक, मानसिक, धार्मिक रूहानी, राजनीतिक व आर्थिक आज़ादी, उस समय तक जब तक कि यह दूसरों को नुकसान ना पहुंचाने लगे।
न्याय व माफ़ करना:- अगर कोई जानबूझ कर गलत काम करे व आपने अगर न्याय की मांग नहीं की, ना ही गलती करने वाले ने माफ़ी मांगी तो ख़ून के बदले ख़ून आंख के बदले आंख ,दांत के बदले दांत के अनुसार बदला जब तक ना लिया जाये, पठान पर यह एक क़र्ज़ा रहता है। यहां तक कि यह उस पर एक बन्धन है कि उसे ऐसा करना ही होगा चाहे वह पठान स्त्री हो या पठान पुरुष।
वादे पूरे करना:- एक असली पठान कभी भी अपने वादे से मुकरेगा नहीं।
एकता व बराबरी:- चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों, चाहे किसी भी क़बीले के हों, चाहे ग़रीब हों या अमीर, चाहे कितना ही रुपया उनके पास हो, पख़्तूनवली सारी दुनिया के पख़्तूनों या पठानों को एक सूत्र बें बांधती है। हर इन्सान बराबर है, यह पश्तूनवली का मूल सिद्धान्त है।
सुने जाने का अधिकार:- चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों, चाहे किसी भी क़बीले के हों, चाहे ग़रीब हों या अमीर, चाहे कितना ही रुपया उनके पास हो हर एक को यह अधिकार प्राप्त है कि उसकी बात समाज में व जिर्गा में सुनी जाये।
परिवार व विश्वास:- यह मानना कि हर एक पख़्तून स्त्री व पुरुष अन्य पख़्तूनों का भाई व बहन है, चाहे पख़्तून 1 हज़ार क़बीलों में ही बंटे क्यों ना हों,, पख़्तून एक परिवार है, उनमें भी अन्य पख़्तून परिवारों के स्त्रियों, बेटियों, ब्ड़े बुज़ुर्गों, माता- पिता, बेटों, व पतियों का ख़्याल रखना चाहिये।
सहयोग:- ग़रीब व कमज़ोरों की मदद की जानी चाहिये वह भी इस प्रकार से कि किसी को मालूम भी ना पड़े।
इल्म या ज्ञान प्राप्त करना:- पख़्तून को ज़िन्दगी, इतिहास, विज्ञान, सभ्यता संस्कृति आदि के बारे में लगातार अपना ज्ञान बढ़ाते रहने की कोशिश करते रहना चाहिये, पख़्तून काे अपना दिमाग़ हमेशा नये विचारों के लिये खुला रखना चाहिये।
बुराई के ख़िलाफ़ लड़ो:- अच्छाई व बुराई के बीच एक लगातार जंग जारी है, पख़्तून जहां कहीं भी वह बुराई देखे तो उसके ख़िलाफ़ लड़ना चाहिये यह उसका फ़र्ज़ है।
हेवाद:- Hewad (nation) –पख़्तून काे अपने पख़्तून देश से प्यार करना चाहिये इसे सुधारने व मुक़म्मल बनाने की कोशिश करते रहना चाहिये,, पख़्तून सभ्यता व संस्कृति की रक्षा करना चाहिये किसी भी प्रकार के विदेशी हमले की स्थिति में पख़्तून को अपने देश पख़्तूनख़्वा की हिफ़ाज़त करना चाहिये, देश की हिफ़ाज़त से तात्पर्य सभ्यता संस्कृति, परंपराएं, जीवन मूल्य आदि की हिफ़ाज़त करने से भी है।
दोद पासबानी:- पख़्तून पर यह बंधनकारी है कि वह पख़्तून सभ्यता व सस्कृति की हिफ़ाज़त करे।
★ पश्तूनवली यह सलाह देती है कि इसको सफलतापूर्वक करने के लिये पख़्तून को पश्तो ज़बान कभी नहीं छोड़ना चाहिये, पश्तो पख़्तून सभ्यता व संस्कृति को बचाने का मुख्य स्रोत है।
मेरी इसी तरह खोजते बीनते किन्ही ‘डॉ.नवरस आफ़रीदी’ साहब की एक ब्लॉग पोस्ट पर नजर पडी जो किन्ही फरजन्द अहमद की इंडिया टुडे में 10 अक्टूबर 2006 को प्रकाशित आर्टीकल पर आधारित है, और उसे मूल पोस्ट के लिंक के साथ यहां दे रहा हूँ।
“एक नौजवान शोधकर्ता ने इसराइल की धरती से कभी गायब हुए एक कबीले के वंशजों को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटे धूल-धूसरित कस्बे में खोज निकाला” –
इस ज़माने में भी बदल (बदला) , नन्वातई (शरण) अउर मेल्मास्ताया (मेजबानी) नाम के तीन शब्दों से परिभाषित होने वाली अपनी आन-बाण-शान को बचाने के लिए जीने-मरने वाले आफ्रीदियों के विचित्र संसार में आपका स्वागत है।
ये लडाकू पठान क़बायली अफगानिस्तान – पाकिस्तान की सीमा पर फैले किसी ऊबड़-खाबड़ इलाके में नहीं, बल्कि नवाबी लखनऊ के बाहरी हिस्से में बसे छोटे से कस्बे मलीहाबाद में रहते हैं, जो दुनिया भर में अपने मीठे तथा खुशबूदार दशहरी आम और उर्दू तथा फारसी की बहतरीन शायरी के लिए प्रसिद्ध है इस धूल-धूसरित कस्बे में घुसते ही बाब-ऐ-गोया नाम का एक विशाल तोरण द्वार आपका स्वागत करेगा। इसका यह नाम मशहूर योद्धा और शायर गोया के नाम पर है । कुछ ही फर्लांग दूर कसर-ऐ-गोया नामक 200 साल पुराना महल है। इसके लान में क़दम रखते की अस सलाम अले कउम की दृढ आवाज़ आती है लंबे,91 वर्षीय कवि कमाल खान अपने दीवान से उठकर खड़े हो जाते हैं और “सैफ-ओ- कलम ( तलवार और कलम) की धरती पर आपका स्वागत है” कहते हुए हाथ मिलाते हैं वह अवध के निवासी नहीं लगते। उन्हें देखकर यह भी नहीं लगता की उनकी उम्र ढल रही है। कस्बे के आफरीदी पठानों में से यह खान बड़े गर्व से याद करते हैं, “मैंने सूना है की हमारे पुरखे इसराइल के थे, पर हम यहूदी नहीं, आफरीदी हैं।
दरअसल , यह सब पहले उन्हें परी कथाओं जैसा लगता था। पर एक गहन अध्धयन ने लगभग यह स्थापित कर दिया है की बहुत कम आबादी वाले आफरीदी पठान इज्राईलीयों के वंशज हैं। एक नौजवान नवरस आफरीदी के किए इस अध्धयन में , जिसे दा इंडियन ज्यूरी एंड दा सेल्फ-प्रोफेस्द लौस्त त्रैब्ज़ ऑफ इज्रैल / The Indian Jury and The Self Prophesied – Lost Tribes of Israel नाम से ई-बुक के रूप में प्रकाशित किया गया है , इस बात की पुष्टी की गयी है की खान जिसे परी कथा समझते थे, वह हकीकत है।
शोध के अनुसार, आफरीदी पठान इसराइल के लुप्त कबीलों में से एक के वंशज हैं। नवरस कहते हैं, “शोध का मुख्य उद्देश्य आफरीदी पठानों की वंश परम्परा को खोजने के अलावा मुसलमानों और यहूदियों के सम्बंदों के मिथक का पता लगाना था। अपने लंबे अध्धयन से में इस निष्कर्ष पर पहुंचा की यहूदियों के प्रति मुसलमानों की घृणा या मुसलमानों के प्रति यहूदियों की घृणा ज्यादातर सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है।” नवरस यह दावा भी करते हैं की दूसरे कई देशों में अपने सह्धार्मियों के विपरीत भारत के यहूदियों की स्थिति कुल मिलाकर सुखद है। भारत में यहूदियों के 34 धर्मस्थल हैं, जिनमें से कईयों के प्रभारी मुसलमान हैं, जबकी मुम्बई में मुसलमान लड़कियों के लिए बने शैक्षिक संस्थान अंजुमन-ऐ-इस्लाम की प्रिन्सेपल यहूदी महिला थीं।
नवरस का अध्धयन रोचक और कुछ हद तक मार्को पोलो के डिस्क्रिप्शन ऑफ़ डी वर्ल्ड की तरह प्रमाणिक है । पाकिस्तान के सरहदी सूबों में रहने वाले निष्ठुर पठानों तथा उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद (लख न ऊ) व कायमगंज (फर्रुखाबाद) के आफरीदी पठानों से इसराइल के नाते पर नवरस के सीमित विवरण को लेकर देर-सवेर बहस ज़रूर होगी । खासकर ऐसे समय में जब यहूदियों और मुसलमानों के बीच घृणा नए दौर में प्रवेश कर रही है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इतिहास विभा के पूर्व अध्यक्ष डॉ एस एन सिन्हा और लखनऊ विश्व विद्यालय के मध्य युगीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ वी डी पांडे जैसे सरीखे इतिहासकारों और विद्वानों ने नवरस के अध्धयन को भारत के यहूदियों और उत्तर प्रदेश में उनके संपर्कों पर महत्त्व पूर्ण शोध माना है ।
यह अध्यन महज़ सिध्धान्तों और पाठ्य पुस्तकों की कहानियों पर आधारित नहीं है। निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए नवरस एक अंतर्राष्ट्रीय शोध दल बनाया , जिसमें सेंटर ऑफ़ नीयर एंड मिडल ईस्ट स्टडीज़ , लंदन यूनिवर्सिटी और रूस की भाषा वैज्ञानिक एवं इतिहासकार डॉ युलिया एगोरोवा को शामिल किया गया। आफ्रीदियों की इज्राएली वंश-परम्परा की पुष्टी के लिए इस दल ने मलीहाबाद की यात्रा की और पैतृक रूप से संबंधित 50 आफरीदी पुरषों के डी एन ऐ नमूने लिए ।
अध्ययन से यह रहस्योद्घाटन हुआ है की कई मुसलमान समूह ख़ुद को इसराइल के कबीलों से जोड़ते हैं। बाईबिल के मुताबिक , इसराइल (इब्राहिम के पोते याकूब का दूसरा नाम) के 12 कबीले थे, जो दो राज्यों में विभाजित थे – 10 कबीलों वाला उत्तरी राज्य , जिसका नाम इसराइल ही रहने दिया गया और दक्षिणी राज्य।
ईसा पूर्व 733 और 721 में इसराइल को तहस-नहस कर वहाँ के कबीलों को खदेड़ दिया गया । बाद में इन दस कबीलों को लुप्त मान लिया गया। लेकिन लुप्त कबीलों में से चार को भारत में पाया गया है। यह हैं आफरीदी, शिन्लुंग (पूर्वोत्तर भारत), युदु (कश्मीर) और गुंटूर के गैर-मुस्लिम कबीले । बहादुर योद्धा आफ्रीदियों को पठान, पख्तून और अफगान कहा जाता है और वे सफ़ेद कोह (अफगानिस्तान) तथा पेशावर (पाकिस्तान) की सीमायों के बीच ऊबड़-खाबड़ इलाकों में रहते हैं । इतिहासकारों का मानना है की अफगान इसराइल (याकूब) के वंशज हैं , लेकिन उनका नाम लुप्त कबीलों की सूची में दाल दिया गया । शोध के मुताबिक , पैगम्बर मुहमद के जीवन काल (622 ईसवी) में इसराइल के एक दर्जन काबाइली सरदारों कोण इस्लाम में दीक्षित किया गया और जब उन्हें प्रताडित किया जाने लगा टू वह पलायन कर गए, दूरी तरफ़ , कुछ अफान-पठानों का विश्वास है की वह इब्राहीम की दूसरी पत्नी बीबी कटोरा के वंशज हैं और उनके 6 बेटे तूरान (उत्तरी-पश्चिमी ईरान) में जाकर बस गए।
इस तरह वह इस शेत्र में आ गए जिसे उतर-पश्चिमी सीमा प्रांत और अफगानिस्तान के रूप में जाना जाता है। यही नहीं , वह ख़ुद में कानों भी बन गए , तूरान में आने और फिर आगे बढ़ने पर उन्हें फारसी में आफ्रीदन कहा गया, जिसका अर्थ ‘नया आया हुआ शख्स’ होता है । इस तरह उन्हें आफरीदी की उपाधी मिली । कई आफरीदी पठान अभी भी शबात और जन्म के ठीक आंठवें दिन खतना जैसी यहूदी परम्परा का पालन करते हैं।
मलीहाबाद में पठान आबादी 1202 ईसवी में बसी थी , जब मुहम्मद बख्तियार खल्जी के हमले के बाद बख्तियार नगर बसाया गया। लेकिन ज्यादातर पठान आबादी 17 वीं शताब्दी के मध्य के लगभग आई और हर प्रवासी कुनबे ने मलीहाबाद के आस-पास 10-12 गाँवों पर कब्जा कर लिया । मलीहाबाद में प्रवासी पठानों , खासकर आफ्रीदियों की सबसे बड़ी लहर एक शाब्दी बाद 1748 और 1761 के बीच अहमद शाह अब्दाली के 5 हमलों के दौरान आई , सन् 1761 में उन्होंने पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को हरा दिया । उस समय अवध शिया नवाबों के आधीन था , जो नजफ़ के विख्यात सैय्यद परिवार के वंशज थे। मलेहाबाद और कायमगंज के कई इज्राएली – आफरीदी तलवार और कलम के बल बल पर काफ़ी मशहूर हुए। उन्होंने युद्ध, राजीती , साहित्य और खेलकूद में भी काफ़ी नाम कमाया। भारत के त्रितिये राष्ट्रपति और जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक इज्राएली पठन डॉ जाकिर हुसैन फर्रुखाबाद के थे, इसी तरह मलीहाबाद के शायर और अवध के दरबारी, फौज के कमांडर तथा खैराबाद के गवर्नर नवां फकीर मुहम्मद खान ‘गोया’, बागी शायर जोश मलीहाबादी , टेनिस खिलाडी गॉस मुहमद खान और रंग कर्मी , लेखक व शायर अनवर नदीम पर इस इलाके को गर्व है।
ख़ुद को बनी इसराइल(इसराइल की संतान) कहने वाले इज्राएली पठान अलीगढ और संभल में बस आये, अलीगढ़ के मौजूदा काजी मुहम्मद अजमल भी इज्राएली मूल के हैं।कई लोगों का मानना है की युवा विद्वान् नवरस का अध्धयन मलीहाबाद के अनुवांशिक-ऐतिहासिक शोध में मील का पत्थर साबित हो सकता है जो उसे इसराइल के कई लुप्त कबीलों के ज़माने से जोडेगा। बहरहाल , लखनऊ के एक कोने में यह कड़ी पायी गई है।
इसी तरह मुजफ्फर हुसैन का इसी संदर्भ में “पाञ्चजन्य” में छपे लेख को भी ज्यों का त्यों उल्लेखित करना चाहूंगा।
यहूदी मुसलमानों की खोज
वे मुसलमान हैं, भारतीय मुसलमान, लेकिन स्वयं को ‘इस्रायल का सपूत’ कहते हैं। उनके दिल इस्रायल के लिए धड़कते हैं। इस्रायल से उनका भावनात्मक सम्बंध है। पाठकों के सम्मुख यह सवाल पैदा हो सकता है कि दुनिया के सारे मुसलमान इस्रायल से घृणा करते हैं, लेकिन वे कौन मुसलमान हैं जो इस्रायल से प्रेम करते हैं? ऐसे लोगों के पूर्वज इस्रायल में थे, जो हजारों साल पहले यहूदी थे। लेकिन जब उनको मतान्तरित कर मुसलमान बना लिया गया तो वे अपने नए मजहब का प्रचार-प्रसार करने के लिए भारत आ गए। अब इन मुसलमानों की पहचान भारत में इस्रायली मुसलमानों की हैसियत से होती है। ऐसे मुसलमानों की आबादी अलीगढ़ की एक जानी-मानी पतली गली में है। पतली गली संकीर्ण तो है ही लेकिन उसका नाम भी पतली गली है। ऐसे 30 परिवार यहां बसे हुए हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस्रायल से आए वैज्ञानिकों और इतिहासकारों की टीम इन हिन्दुस्थानी मुसलमानों के रक्त की जांच कर रही है। उक्त सनसनीपूर्ण समाचार अमरीका के वाल स्ट्रीट जनरल में प्रकाशित हुआ है। रपट में कहा गया है यहूदी नस्ल के मुसलमानों की खोज में इस्रायल ने बढ़-चढ़कर दिलचस्पी ली है। कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद के निकट बसे पठानों की आबादी के तार भी इस्रायल से जुड़े होने के सबूत मिले हैं। अलीगढ़ की बस्ती एक दूसरा उदाहरण है, जहां यहूदी नस्ल के लोग पाए गए हैं। इस्रायल ने कुछ समय पहले पाकिस्तान के उत्तरी-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में भी पठानों के आफरी कबीले में इस्रायली नस्ल के पठानों को ढूंढ निकाला था। बाद में उनकी बड़ी संख्या को इस्रायल में ले जाकर बसा दिया था। उक्त पठानों का समूह तेलअवीव पहुंच कर पुन: यहूदी बन गया। फ्लोरिडा इंटरनेशनल विश्वविद्यालय के अनुसार 1400 वर्ष पूर्व जब मुसलमान और यहूदियों में संघर्ष हुआ तो बहुत सारे लोग भारत आ गए। वे यहूदी रहे हों अथवा मुसलमान हो गए हों, यह एक छोटा मुद्दा है। लेकिन यथार्थ यह है कि आज के असंख्य मुसलमानों में इस्रायली रक्त प्रवाहित है। मुम्बई में यहूदियों को आज भी (जो आबादी है वे इस्रायली नस्ल के हैं) ऐसा माना जाता है। यही स्थिति केरल के यहूदियों की भी है। जो यहूदी यहां हैं वे कभी सऊदी अरब के भाग हिजाज के रहने वाले थे।
इस्रायली पिंड
इस्रायल का जन्म भौगोलिक आधार पर तो 1949 में ही हुआ लेकिन तत्कालीन अरब, जिसमें आज के सऊदी अरब, यमन और फिलीस्तीन में रहने वाले यहूदियों की आबादी सबसे अधिक थी। जहां तक भारत आए यहूदियों (जो अब मुसलमान हो गए हैं) के पिंड का सवाल है वह वैज्ञानिक रूप से आज भी इस्रायल का ही है। क्रूसेड वार के परिणामस्वरूप ईसाई तो यूरोप की तरफ बढ़ गए। लेकिन यहूदियों की बहुत बड़ी संख्या फिलीस्तीन और उसके आस-पास बसी हुई थी। मुस्लिमों से संघर्ष होने के बाद यहूदी जनता इस क्षेत्र से निकलकर विश्व के अनेक देशों में फैल गई। भारत में भी उनकी जनसंख्या अनेक स्थानों पर आकर बस गई। केरल और उत्तर पूर्वी भारत इनके मुख्य क्षेत्र थे। बाहर से आए यहूदियों के अनेक कबीले आज भी यहां देखने को मिलते हैं। वे 19वीं शताब्दी में ईसाई हो गए थे। लेकिन इस्रायल के लोग आज भी उन्हें अपना अंग मानते हैं। उनका कहना है कि उनके त्योहार और रस्म-रिवाज वही हैं, जो इस्रायल के यहूदियों के हैं। इनमें से अनेक कबीले इस्रायल की प्रेरणा से पुन: यरुशलम और तेलअबीब की ओर लौट गए हैं। इस्रायल पहुंचने पर उन्होंने अपने पुराने मत यहूदियत को स्वीकार कर लिया है।
अलीगढ़ के नजीर अली का कहना है कि हम बनू इस्रायल की संतानें हैं, लेकिन अब तो हम मुसलमान हैं और इस्लाम ही हमारा मजहब है। उनके बड़े बेटे मोहम्मद नजीर का कहना है कि बनू इस्रायली होना हमारे लिए गर्व की बात हो सकती है, लेकिन मजहबी आस्था हमारी प्राथमिकता है, नस्ल और वंश नहीं। अलीगढ़ के एक प्रधानाध्यापक नौशाद अहमद, जो अपने नाम के साथ इस्रायली शब्द लगाते हैं, उनका कहना है कि इस्रायल के लिए हमारा दिल धड़कता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। 11वीं शताब्दी में मोहम्मद गोरी ने हिन्दुस्थान में पांव रखा तो बनू इस्रायली उसके साथ थे, जो आगे चलकर भारत में ही स्थायी हो गए।
नस्ल नहीं बदलती
उपरोक्त घटना यह बताती है कि लोगों की मजहबी आस्था अनेक कारणों से बदलती रही है। लेकिन उनका रक्त और नस्ल बदलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। मध्य एशिया में यहूदी मत सबसे प्राचीन माना जाता है। उसके बाद ईसाई पंथ आया और बाद में इस्लाम। समय और परिस्थितियों के कारण बाद में आने वाले पंथों ने अपने से पूर्व आए पंथ के लोगों को मतान्तरित किया। विश्व में यहूदियत से भी अधिक प्राचीन पारसियों का जरथ्रुष्ट और चीनियों का कनफ्यूशियस मत रहा है। इसके साथ ही भारत में सनातन धर्म सबसे अधिक प्राचीन रहा है। इसके बाद जैन एवं बौद्ध मत की शुरुआत हुई। सनातन धर्म प्राचीन मत-पंथों में एक है, इसके असंख्य सबूत हैं। यहूदियत के प्रणेता हजरत इब्राहीम थे। उनके पश्चात् हजरत ईसा ने ईसाई मत एवं पैगम्बर हजरत मोहम्मद ने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। ईसाइयत और इस्लाम का जब उदय हुआ तो यहूदियों से ही उनका मतान्तरण हुआ यह स्वयं सिद्ध है। इसी आधार पर जब विदेशी आक्रमण प्रारम्भ हुए तो इन आक्रांताओं के साथ ईसाई और इस्लाम की विचारधारा का भी भारतीय उपखण्ड में श्रीगणेश हुआ। किस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में यहूदियत फैली और उसके अनुयाई सम्पूर्ण जगत में किस तरह से फैल गए इस पर वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। जब कोई विजेता बनता है तो अपने साथ अपने मत को भी पराजित देश पर थोपने का प्रयास करता है। यहूदियों ने तो अपनी विजय को ही अपने मजहब का माध्यम बना लिया।
19वीं और 20वीं शताब्दी में जब लोकतंत्र का श्रीगणेश हुआ उस समय पंथ पर आधारित दर्शन में इस बात की चर्चा होने लगी कि क्या अब विभिन्न आस्थाओं को अपने पुराने घर में लौटने का समय आ गया है? एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका से जिन लोगों को उत्तरी अमरीका में गुलाम बनाकर लाया गया था वे विचार करने लगे हैं कि क्या मजहबी, सामाजिक, सांस्कृतिक और पौराणिक आधार पर हमारी घर वापसी हो सकती है? फिजी, सूरीनाम, मारीशस जैसे आठ देश, जहां दो करोड़ भारतीय रहते हैं, उनके मन में यह बात उठने लगी कि हमें भी कभी गुलाम बनाकर भारत से लाया गया था। अब हम आजाद हैं, यहां हमारी सरकार है। क्या भारतीयता को हम अपने इन देशों में परवान चढ़ा सकते हैं? भारतीय उपखण्ड के देश विचार करने लगे हैं कि क्या अपने पिंड से पुन: जुड़ने का आन्दोलन चलाने का समय आ गया है।
भारत में वंशावलियों को सुरक्षित रखने की परम्परा बड़ी प्राचीन है। तीर्थों पर पोथी तैयार करने वाले पंडित आज भी हमारे प्राचीन तीर्थों के आस-पास रहते हैं। असंख्य भारतीय उनके पास जाकर अपने वंश की पीढ़ी-दर-पीढ़ी जानकारी प्राप्त करते हैं। भारत में बसने वाली जनता को यदि अपना भूतकाल मालूम हो गया तो आज जो मजहब और जाति के झगड़े हैं वे स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे।
-जिल्लेइल़ाही का Blog

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