फ्रेंडशिप डे : पिता के मित्र इस ‘सुदामा’ को मुस्लिम परिवार ने रख लिया अपने साथ

चैतन्य सोनी, सागर । दुनिया में भगवान कृष्ण और सुदामा की मित्रता दया, करुणा, प्रेम, त्याग और तपस्या की प्रतीक है। गढ़ाकोटा में मुस्लिम परिवार के बेटों ने पिता के निधन के बाद उनके मित्र सुदामा को जीवनभर के लिए अपना लिया। बाकायदा उन्हें पिता का दर्जा दिया और उनके लिए अपने पिता का कक्ष और सारा सामान प्रदान किया है। मित्रता को लेकर मिसाल तो कई मिल जाती हैं, लेकिन खान परिवार का अपने पिता और उनके मित्र के प्रति स्नेह और समर्पण अतुलनीय है।

गढ़ाकोटा में शिक्षक एजे खान का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। उनके शिष्यों में पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव से लेकर नगर में हजारों शिष्यों ने जीवन का ककहरा सीखा था। खान साहब के एक परम मित्र हैं सुदामा पटवा। करीब 30 सालों से शिक्षक एजे खान और सुदामा पटवा सुबह से देर रात तक एक साथ रहते रहे हैं। सुबह की चाय से लेकर रात का भोजन तक साथ में करते थे। पिछले महीने 4 जुलाई को एजे खान ने 92 वर्ष की उम्र में दुनिया को विदा कह दिया। उनके इंतकाल के बाद से परममित्र सुदामा पटवा की मानो दुनिया ही लुट गई।

सुदामा दुखी हो गए और मित्र के गम में भावविहल हो उठते। अपने पिता के स्नेही और मित्र की हालत खान साहब के बेटे व पेशे से अधिवक्ता फारुख खान से देखी न गई। चूंकि तरुणाई का पहला कदम पिता के बजाय चाचा तुल्य सुदामा का हाथ पकड़ कर चले थे सो वे उनके भाव को समझ गए।

पिता का कक्ष व सामान उनके मित्र को समर्पित

फारुख खान ने अपनी पत्नी, छोटे भाई फिरोज खान, 5 बहनें, बहनोई व बच्चों को सारी बात बताई। परिवार ने तय कि चाचा सुदामा को अपने पिता तुल्य दर्जा देकर उन्हें अपने परिवार के साथ घर में ही रखेंगे। सुदामा चाचा के लिए पिता का कक्ष और उनका ही पलंग और सारा सामान भी सौंपा गया। सुदामा का भी परिवार हैं, उनके दो बेटे हैं छोटे बेटे मुन्ना को लकवा लगा हुआ है और बहू व परिवार के अन्य सदस्य देखभाल करते हैं। परिवार सागर में बसा है, लेकिन सुदामा ने पूरी जिंदगी मित्र के साथ गढ़ाकोटा में बिताई है। खान परिवार के निर्णय का सम्मान सुदामा पटवा के बेटों ने भी रखा और सहर्ष स्वीकृति भी दे दी।

हिंदू-मुस्लिम एकता की नजीर

दिवंगत शिक्षक एजे खान के बड़े बेटे फारुख खान बताते हैं कि वे व उनके बहनोई साहब स्वयं सुदामा चाचा को सागर लेने गए थे। उन्हें बाकायदा सम्मान के साथ घर लाए हैं। समाज में किसी को कोई दिक्कत न हो इसलिए सुदामा चाचा से बाकायदा बसीयत लिखने की गुजारिश की, उनकी इच्छा के अनुसार अंतिम संस्कार का संकल्प लिया है। फारुख बताते हैं कि भले ही उनका परिवार मुस्लिम हैं, लेकिन खुदा न करे जब कभी मौका आएगा तो हिंदू रिवाज से ही अंतिम संस्कार तक की बात स्पष्ट कर ली गई है।

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