FILM REVIEW: ‘बुधिया सिंह: बोर्न टू रन’

बुधिया सिंह का नाम याद है आपको? वो पांच साल का बच्चा, जिसका नाम 70 किमी. की मैराथन दौड़ की वजह से अब से दस साल पहले सुर्खियों में आया था। शायद नहीं याद होगा। या थोड़ा-थोड़ा सा याद होगा। और वो उसका कोच, बिरंची दास, जिस पर बुधिया के शोषण, लालच, सरकारी अफसरों से बेअदबी और पैसों का गबन आदि के आरोप लगे थे। क्या वो याद है?

अगर याद नहीं तो ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें आज दस साल बाद जानना इस फिल्म की वजह से जरुरी हो गया है। खासतौर से जब सारी दुनिया रियो ओलपिंक के जश्न की तैयारी कर रही है। क्योंकि अगर सब ठीक रहा होता तो शायद बुधिया भारत की ओर से ओलंपिक में मैराथान दौड़ का पहला दावेदार होता सकता था।

निर्देशक सोमेन्द्र पाढी की फिल्म ‘बुधिया सिंह-बॉर्न टू रन’ उस पांच साल के बच्चे और उसके कोच की कहानी तो कहती ही है, साथ ही उस पूरे घटनाक्रम से पर्दा भी उठाती है, जिसके तहत बुधिया पर मैराथन न दौड़ने का बैन लगा और वह बिरंची दास से दूर रहने के लिए मजबूर हुआ। इस फिल्म के माध्यम से जानना भी जरुरी है कि आखिर क्यों बुधिया की मां ने उसे बचपन में महज 750 रु. के लिए किसी फेरीवाले को बेच दिया था। और शायद ये बात आपको न पचे कि उस पांच साल के बच्चे का डोप टेस्ट भी हुआ था।

फिल्म की शुरुआत बेहद साराधण ढंग से पुरी की एक मलिन बस्ती से शुरू होती है। एक तरफ रेलवे पुलिस ने बस्ती को घेरा हुआ तो दूसरी तरफ बुधिया (मयूर पटोले) की मां सुकांति (तिलोतिमा शोम) उसका सौदा कर रही है। ये बात जब बिरंची दास (मनोज बाजपेयी) को पता चलती है तो वह उस फेरीवाले को पैसे दे कर बुधिया को वापस ले आता है और अपने साथ रखने लगता है। बिरंची के घर कुल जमा 22 अनाथ बच्चे पहले से ही रहते हैं।

बिंरची और उसकी पत्नी गीता (श्रुति मराठे) इन बच्चों को जूडो की ट्रेनिंग देते हैं और पढ़ाते-लिखाते भी हैं। एक दिन बिरंची को पता चलता है कि बुधिया में लगातार दौड़ने की अद्भुत क्षमता है। उसका ये गुण पहचानने के बाद वह उसे ट्रेंड करता है और छोटी-छोटी कई लंबी दौड़ों के बाद उसे 20 और फिर 30 किमी. की मैराथन तक ले जाता है।

बुधिया पूरे उड़ीसा में प्रसिद्ध हो जाता है। उसके चर्चे पूरे देश में होने लगते हैं और खबरें विदेश तक भी पहुंच जाती हैं। एक विदेशी मीडिया की रिपोर्टर उस पर पूरी फिल्म बनाने के लिए भारत आती है। अब बिरंची चाहता है कि बुधिया 70 किमी. की मैराथन दौड़ कर विश्व रिकार्ड बनाए। पांच साल के बच्चे के लिए ये काम न केवल बेहद मुश्किल है, बलिक कई कोणों से अमानवीय भी लगता है, जिसकी वजह से बिंरची धीरे-धीरे कई लोगों की आंख में खटकने लगता है। खासतौर से क्षेत्र के बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष (छाया कदम) और उसके पीए मिश्रा जी (गजराज राव) की नजरों में। बस यहीं से बुधिया, बिंरची और बाल कल्याण समिति के बीच एक जंग सी छिड़ जाती है।

खेल पर आधारित ये फिल्म बुधिया से ज्यादा बिरंची और उसके जूनून पर केन्द्रित दिखती है। न केवल जूनून, बल्कि दौड़ के दौरान बुधिया को पानी तक न पीने देने वाले दृश्य बिरंची के पागलपन को भी दर्शाते हैं, जिसे मनोज बाजपेयी ने अपने बेहतरीन अभिनय से कुछ इस कदर संवारा है कि आज दस साल बाद आमजन ये सोचने को मजबूर होगा कि आखिर बिरंची को किस बात की सनक थी। फिल्म दिखाती है कि बिरंची, बुधिया को ओलंपिक तक पहुंचाना चाहता है, लेकिन किस कीमत पर।

उस मैराथन में करीब 67 किमी. दौड़ने के बाद जब बुधिया बेहोश हो जाता है तो भी बिंरची उसे लेकर स्टेज पर चला जाता है और ये जताने की कोशिश करता है कि वह ठीक है और वह अब भी और दौड़ सकता है। ये सब देख कर परेशानी सी होने लगती है। यहां कई बार लगता है कि आखिर क्यों, ये सब।

फिल्म का घटनाक्रम दर्शाया है कि क्या बुधिया को किसी मुकाम तक पहुंचाने के लिए बिरंची का ये सब करना क्या वाकई ठीक था। उसका तरीका ठीक था। शायद काफी हद तक नहीं, लेकिन उसकी नीयत… उसका क्या, जिसे लेकर तमाम बातें बनीं। सोमेन्द्र ने इस पूरी कहानी से परतें हटाने का काम किया है, जिसमें प्रशासन, राजनीति, अपने से मिले धोखे और कई चीजें शामिल हैं।

ये पूरी कहानी एक मसौदे की तरह लगती है, जिसके पन्ने दर पन्ने को बेहद सजीव चित्रण से सजाया गया है। फिल्म का शिल्प यथार्थवादी कलेवर लिए है। दृश्यों संग पार्श्व संगीत सुकून देता है। पात्रों का अभिनय और विषय के अनुकूल पटकथा इसे अगले स्तर तक ले जाती है। बॉलीवुड में खेल पर बनी अब तक की फिल्मों से यह फिल्म काफी अलग है। इसमें चकाचौंध भरे सितारे नहीं हैं, बल्कि पात्रों से मेल खाते कलाकार हैं।

अपनी पिछली फिल्म ‘अलीगढ़’ में कुछ बंधे-बंधे से दिखे मनोज बाजपेयी ने फिल्म में खुल कर अभिनय किया है। उनका किरदार कोई महात्मा या भलमानस सरीखा नहीं है। और न ही उन्होंने ऐसा बनने की कोशिश की है। इससे ये भी पता चलता है कि बिंरची पर लगे आरोप बेशक गलत थे, लेकिन वह नेताओं से पैसे भी लेता था और उसके कई धंधे भी थे। लेकिन वो गलत ढंग से पैसा नहीं कमाता था। उनके किरदार में फुर्ती और आक्रोश उनमें अच्छे से दिखता है। बाल कलाकार मयूर पटोले का काम भी बेहद सराहनीय है। इनके बीच बिरंची की पत्नी का किरदार भी है, जो बेहद प्यारा और कई जगहों पर बेहद चुनौतीपूर्ण रूप में दिखाई देता है। इसे श्रुति मराठे ने बेहद करीने से अंजाम दिया है। उनका चेहरा नया है, इसलिए उत्सुकता-सी पैदा करता है।

कुल मिला कर ये फिल्म न केवल एक चौंकाने वाली कहानी के रूप में ध्यानाकर्षित करती है, बल्कि देश में खेल जुड़ी राजनीति वगैराह को भी प्रकाश में लाती है। इसमें नामचीन सितारों का ग्लैमर तो नहीं है, लेकिन अपनी बात रखने और सच को दिखाने की ताकत जरूर है। बुधिया आज करीब पन्द्रह साल का हो चुका है और भी स्पोर्ट्स हॉस्टम में सरकार की देख-रेख में है। ये फिल्म देखने के बाद आज उसके बारे में और जानना चाहेंगे। और बिरंची…

रेटिंग 3.5 स्टार कलाकार: मनोज बाजपेयी, मयूर पटोले, श्रुति मराठे, गजराज राव, तिलोतिमा शोम, छाया कदम निर्देशक-लेखक-पटकथा-संवाद: सोमेन्द्र पाढी निर्माता: सुब्रत रे, गजराज राव, शुभमित्रा सेन संगीत: सिद्धांत माथुर, ईशान छाबड़ा गीत : गोपाल दत्त, अभिषेक दुबे, विक्रांत यादव

Be the first to comment on "FILM REVIEW: ‘बुधिया सिंह: बोर्न टू रन’"

Leave a comment

Your email address will not be published.


*


error: Content is protected !!